नोबेल पुरस्कार का पश्चिमी पूर्वाग्रह और वैकल्पिक पुरस्कार व्यवस्था

नोबेल पुरस्कार का पश्चिमी पूर्वाग्रह और वैकल्पिक व्यवस्था

नोबेल पुरस्कार का पश्चिमी पूर्वाग्रह आज वैश्विक बहस का प्रमुख मुद्दा बन गया है। डिजिटल युग में जब पारदर्शिता को मौलिक अधिकार माना जाता है, तब दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार की अपारदर्शी चयन प्रक्रिया और पश्चिमी प्रभुत्व पर सवाल उठना स्वाभाविक है। यह पुरस्कार, जिसे विश्व में सर्वोच्च सम्मान के रूप में देखा जाता है, पर यह आरोप लग रहा है कि यह केवल वैज्ञानिक उत्कृष्टता या मानवीय प्रयासों के बजाय पश्चिमी देशों के राजनीतिक और सांस्कृतिक एजेंडे को बढ़ावा देता है।

नोबेल पुरस्कार में पश्चिमी प्रभुत्व

नोबेल पुरस्कार की स्थापना 1901 में हुई थी और इसकी चयन प्रक्रिया स्वीडन तथा नॉर्वे की समितियों द्वारा नियंत्रित की जाती है। यह स्वाभाविक है कि उनके निर्णय यूरोपीय दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करते हैं। आंकड़ों के अनुसार, 1901 से अब तक 80% से अधिक नोबेल विजेता पश्चिमी देशों से आए हैं। इसके विपरीत, एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका को मिलाकर केवल 15-20% पुरस्कार दिए गए हैं। भारत जैसे विशाल और प्राचीन सभ्यता वाले देश को अब तक सिर्फ 5-6 नोबेल पुरस्कार मिले हैं, जबकि उसके वैज्ञानिक, दार्शनिक और सामाजिक सुधारक वैश्विक स्तर पर क्रांतिकारी योगदान कर चुके हैं।

लिंग और नस्लीय असंतुलन भी गंभीर समस्या है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में गैर-श्वेत और महिला वैज्ञानिकों को ऐतिहासिक रूप से अनदेखा किया गया या हतोत्साहित किया गया है। यह असमानता आज के आधुनिक युग में भी बनी हुई है। उदाहरण के तौर पर कई एशियाई और अफ्रीकी वैज्ञानिकों के शोध को पश्चिमी विजेताओं की तुलना में कम महत्व दिया जाता है।

नोबेल शांति पुरस्कार अक्सर राजनीतिक विवादों के केंद्र में रहा है। 2009 में बराक ओबामा को पुरस्कार दिए जाने पर भारी आलोचना हुई, जबकि उस समय वे युद्धों में शामिल थे। इसके विपरीत, महात्मा गांधी, जिन्होंने अहिंसा और शांति का वैश्विक संदेश दिया, को कभी नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिला। हेनरी किसिंजर को 1973 में वियतनाम युद्ध में भूमिका के बावजूद शांति पुरस्कार दिया जाना भी पश्चिमी पूर्वाग्रह का उदाहरण है।

अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार में भी यूरोकेंद्रित दृष्टिकोण दिखाई देता है। 2024 के पुरस्कार में वैश्विक असमानताओं पर शोध को सम्मानित किया गया, लेकिन उसमें विकासशील देशों के दृष्टिकोण को नज़रअंदाज़ किया गया। इस तरह के निर्णय यह दर्शाते हैं कि नोबेल पुरस्कार का पश्चिमी पूर्वाग्रह अब भी सक्रिय है।

सोशल मीडिया युग और पारदर्शिता की चुनौती

आज के समय में जब हर जानकारी तुरंत वैश्विक हो जाती है, नोबेल समितियों की 50 साल तक गुप्त रखी जाने वाली प्रक्रिया लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ लगती है। सोशल मीडिया युग में जनता पारदर्शिता की मांग कर रही है। विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य है, जिससे पश्चिमी बुद्धिजीवी ही तय करते हैं कि कौन-सा योगदान “विश्व स्तरीय” है।

वर्तमान में कुछ वैकल्पिक पुरस्कार मौजूद हैं—रामन पुरस्कार (भारत), राइट लाइवलीहुड अवार्ड (स्वीडन), प्रिज़कर आर्किटेक्चर पुरस्कार और तांग पुरस्कार (हांगकांग)। हालांकि, इनमें से कोई भी नोबेल के बराबर की प्रतिष्ठा हासिल नहीं कर पाया है। समाधान के रूप में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में एक वैश्विक पुरस्कार परिषद का गठन, सभी महाद्वीपों का समान प्रतिनिधित्व, और ऑनलाइन वोटिंग एवं वैश्विक पीयर रिव्यू जैसी डिजिटल युग की पारदर्शी प्रक्रियाएं अपनाना आवश्यक है।

भारत के योगदान को अक्सर अनदेखा किया गया है। प्राचीन काल के चरक और सुश्रुत आधुनिक चिकित्सा के जनक थे। आर्यभट्ट ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी योगदान दिया। जगदीश चंद्र बोस वायरलेस तकनीक के अग्रणी थे, और होमी भाभा परमाणु भौतिकी के महान वैज्ञानिक। आज भी भारत के कई वैज्ञानिक और विचारक वैश्विक स्तर पर अग्रणी शोध कर रहे हैं, लेकिन पश्चिमी पूर्वाग्रह के कारण उन्हें उचित मान्यता नहीं मिलती।

आगे का रास्ता स्पष्ट है। सबसे पहले, नोबेल पुरस्कार की चयन समिति में वैश्विक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिए। पारदर्शी मूल्यांकन प्रक्रिया और 50 साल की गुप्तता नीति को समाप्त करना समय की मांग है। ब्लॉकचेन तकनीक और AI आधारित निष्पक्ष मूल्यांकन से पारदर्शिता लाई जा सकती है। G20 देशों और BRICS गठबंधन को मिलकर एक वैकल्पिक वैश्विक पुरस्कार प्रणाली बनाने के प्रयास शुरू करने चाहिए।

भारत इस परिवर्तन का नेतृत्व कर सकता है। डिजिटल प्लेटफॉर्म के विकास, AI और ब्लॉकचेन के प्रयोग, और वैश्विक सहयोग के माध्यम से भारत एक नई और न्यायसंगत पुरस्कार व्यवस्था स्थापित करने में अग्रणी भूमिका निभा सकता है। यह पहल केवल प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करने का माध्यम है कि सभी सभ्यताओं और संस्कृतियों के योगदान को समान रूप से सम्मान मिले।

दीर्घकालिक रणनीतियों में शिक्षा प्रणाली में विविधता को बढ़ावा देना, गैर-पश्चिमी योगदानों की पहचान करना और मीडिया के माध्यम से जागरूकता फैलाना शामिल है। पश्चिमी पूर्वाग्रह पर खुली बहस और सोशल मीडिया अभियानों के द्वारा जनता को जोड़ा जा सकता है। राजनयिक पहल के रूप में अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस विषय को उठाना और बहुपक्षीय संधियों के माध्यम से सुधार लाना महत्वपूर्ण होगा।

चुनौतियां भी हैं। नोबेल पुरस्कार की 120 साल की स्थापित ब्रांड वैल्यू को चुनौती देना आसान नहीं होगा। वित्तीय संसाधनों की कमी और पश्चिमी मीडिया का झुकाव भी बाधाएं हैं। लेकिन धीरे-धीरे वैकल्पिक पुरस्कारों की विश्वसनीयता बढ़ाकर, G20 देशों के संयुक्त फंड से संसाधन जुटाकर और डिजिटल मीडिया का उपयोग कर इन्हें पार किया जा सकता है।

वर्तमान वैश्विक परिस्थितियां अनुकूल हैं—बहुध्रुवीय विश्व का उदय, पश्चिमी वर्चस्व पर बढ़ते सवाल, डिजिटल तकनीक की प्रगति और विकासशील देशों की बढ़ती आर्थिक शक्ति। इन सबके बीच भारत जैसे देशों के लिए यह एक अवसर है कि वे वैश्विक पुरस्कार प्रणाली के भविष्य को आकार दें।

अंततः, नोबेल पुरस्कार का पश्चिमी पूर्वाग्रह अब अनदेखा नहीं किया जा सकता। 2024 के अर्थशास्त्र पुरस्कार पर आई तीखी आलोचना ने यह दिखा दिया है कि बदलाव की आवश्यकता है। यह समय है जब सभी राष्ट्र मिलकर एक पारदर्शी, न्यायसंगत और वास्तव में वैश्विक पुरस्कार प्रणाली का निर्माण करें। भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा और आधुनिक तकनीकी क्षमता इसे नेतृत्व करने के लिए उपयुक्त बनाती है। यदि हम आज कदम उठाते हैं, तो आने वाली पीढ़ियां एक अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण विश्व में रह सकेंगी।

अधिक जानकारी के लिए नोबेल पुरस्कार की आधिकारिक वेबसाइट देखें।

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