यूरोपियन यूनियन हथियार खरीद में अमरीका का दबदबा

यूरोपियन यूनियन हथियार खरीद में वैश्विक नेताओं की भूमिका

यूरोपियन यूनियन हथियार खरीद में अमरीका की भूमिका

वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों में यूरोपियन यूनियन हथियार खरीद को लेकर एक गंभीर चिंता उभरकर सामने आई है। यूरोपीय संघ अपनी सुरक्षा आवश्यकताओं के लिए 65% तक हथियार अमरीका से खरीदता है, जो उसे एक रणनीतिक निर्भरता में बाँधता है।

अमरीका और NATO की रणनीतिक पकड़

यूरोपियन यूनियन हथियार खरीद में अमरीका की यह बड़ी हिस्सेदारी कोई संयोग नहीं है। NATO की रचना भी एक ऐसे ढाँचे के रूप में की गई थी जो यूरोप को लगातार किसी न किसी खतरे की याद दिलाकर अमरीकी हथियारों पर निर्भर बनाए रखे। यह हथियार बेचने और अमरीकी शर्तों पर व्यापार करवाने की एक सोची-समझी रणनीति मानी जाती है।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयानों ने इस परिदृश्य को और जटिल बना दिया है। ग्रीनलैंड और कनाडा को अमरीका में शामिल करने जैसे बयानों ने यूरोपीय देशों को सतर्क कर दिया है। साथ ही ट्रंप की धमकियों और नीतियों ने यूरोपीय यूनियन को मजबूर किया है कि वह हथियार खरीद के लिए अन्य विकल्पों की तलाश करे।

भारत: नया रणनीतिक और व्यावसायिक सहयोगी

भारत, जो रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है, अब यूरोपियन यूनियन हथियार खरीद का एक भरोसेमंद विकल्प बन रहा है। ऑपरेशन सिंदूर की सफलता और भारतीय रक्षा उत्पादों की गुणवत्ता ने कई यूरोपीय देशों को भारत की ओर आकर्षित किया है।

भारतीय रक्षा उपकरण न केवल कम लागत में उपलब्ध हैं बल्कि टिकाऊ और तकनीकी रूप से परिष्कृत भी हैं। भारत की स्थिरता और भरोसेमंद नीति उसे यूरोप के लिए एक उपयुक्त साझेदार बनाती है।

ट्रंप की ‘दादा गिरी’ और वैश्विक असंतुलन

हाल में ट्रंप ने यह बयान दिया कि अमरीका कनाडा से सभी व्यापारिक संबंध तोड़ देगा। इस प्रकार के बयान अमरीकी प्रभुत्व की मानसिकता को दर्शाते हैं। अमरीका यह भी मानता है कि यूक्रेन युद्ध में केवल वही पैसा खर्च कर रहा है, जबकि NATO में सहयोगियों की भूमिका नगण्य है।

G7 का औचित्य भी अब सवालों के घेरे में है, क्योंकि अमरीकी अर्थव्यवस्था अकेले ही बाकी छह देशों की संयुक्त अर्थव्यवस्था से बड़ी हो चुकी है। इससे अमरीका अपने को ठगा हुआ महसूस करता है और यूरोप भी असहज हो रहा है।

रूस-चीन के रिश्तों में तनाव और नया विश्व ऑर्डर

रूस और चीन के बीच भी विश्वास की कमी नजर आने लगी है। कुछ समय पहले रूस का एक गुप्त दस्तावेज़ लीक हुआ था जिसमें चीन को रूस के लिए खतरा माना गया था। यदि ईरान में इजरायल या अमरीका समर्थित सरकार सत्ता में आती है, तो चीन फिर से रूस की ओर देख सकता है।

इस प्रकार की भू-राजनीतिक जटिलताओं ने दुनिया को एक नए वैश्विक शक्ति-संतुलन की ओर धकेल दिया है।

तीसरे विश्व युद्ध की आशंका और भारत की भूमिका

तेजी से बदलते वैश्विक समीकरणों में तीसरे विश्व युद्ध की संभावना को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। अमरीका NATO से दूरी बना रहा है, यूरोपियन यूनियन हथियार खरीद के लिए भारत जैसे विकल्प खोज रहा है, और रूस-चीन के रिश्ते कमजोर हो रहे हैं।

इस नए विश्व ऑर्डर में भारत न केवल एक रणनीतिक संतुलन बनाए रखने वाला देश बन सकता है बल्कि हथियार उत्पादक और निर्यातक के रूप में भी वैश्विक मंच पर अपनी पहचान मजबूत कर सकता है।

भारत का वैश्विक रक्षा निर्यात में बढ़ता योगदान

भारत न केवल यूरोप के लिए बल्कि एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों में भी भरोसेमंद रक्षा निर्यातक के रूप में उभर रहा है। सरकार की ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ योजनाओं के तहत रक्षा उत्पादन में बड़ा निवेश हुआ है। इसका प्रभाव वैश्विक स्तर पर भारतीय उत्पादों की विश्वसनीयता और मांग में स्पष्ट देखा जा सकता है।

निष्कर्ष

यूरोपियन यूनियन हथियार खरीद में विविधता लाने के प्रयास कर रहा है। भारत इस दौड़ में एक मजबूत और भरोसेमंद विकल्प बनकर उभरा है। आने वाले वर्षों में भारत और यूरोपीय देशों के बीच रक्षा सहयोग में और मजबूती आना तय है।

**भारत की रक्षा नीति और वैश्विक स्थिति पर विस्तार से पढ़ें**
👉 [भारत: वैश्विक सुरक्षा में उभरती भूमिका]

👉 [NATO Official Site – nato.int](https://www.nato.int)

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