विपक्ष का चुनाव आयोग बहिष्कार: सच्चाई से बचने की रणनीति

विपक्ष का चुनाव आयोग बहिष्कार एक बार फिर यह सवाल खड़ा करता है कि विपक्षी नेताओं के दावों में सच्चाई कितनी है। बिहार के विशेष गहन संशोधन (SIR) और 2024 के चुनावों में कथित वोट चोरी पर 300 से अधिक सांसदों का मार्च करना एक बात है, लेकिन संवैधानिक चर्चा में भाग लेने से कतराना दूसरी।
राहुल गांधी और विपक्ष के दावे
राहुल गांधी और उनके सहयोगियों ने विपक्ष का चुनाव आयोग बहिष्कार को जनता के सामने लोकतांत्रिक संघर्ष के रूप में पेश किया। लेकिन चुनाव आयोग द्वारा आमंत्रण मिलने के बाद भी कोई सांसद हाजिर नहीं हुआ। सड़कों पर नारेबाजी करना आसान है, पर संवैधानिक संस्थाओं के सामने अपने आरोपों को साबित करना अलग बात है।
संवैधानिक प्रक्रिया से बचने के तर्क
विपक्ष ने आयोग के सामने पेश होने की बजाय बेतुके तर्क दिए। सांसदों की सूची नहीं देना, शपथ पत्र से बचना और आयोग से भागने के तरीके खोजना बताता है कि उनके पास ठोस सबूत नहीं हैं।
सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि विपक्ष को डर है कि यदि उनका झूठ शपथ पत्र में पकड़ा गया तो न केवल संसद सदस्यता जाएगी बल्कि कानूनी कार्रवाई भी होगी।
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अराजकता बनाम संवैधानिक समाधान
भारतीय विपक्ष अशांति फैलाने में माहिर है, लेकिन संवैधानिक तरीके से समाधान ढूंढने से बचता है। अगर वास्तव में उनके पास सबूत होते, तो विपक्ष का चुनाव आयोग बहिष्कार के बजाय वे आयोग का सामना करते।
जनतांत्रिक मूल्यों का हनन
- सड़क पर शोर-शराबा और जनता को गुमराह करना
- चुनाव आयोग के निमंत्रण को ठुकराना
- संवैधानिक प्रक्रिया का अपमान
राजनीतिक रणनीति की असलियत
यह रणनीति साफ करती है कि विपक्ष सत्य से डरता है, संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान नहीं करता और जनता को भ्रमित करके राजनीतिक लाभ लेना चाहता है।
निष्कर्ष
अंततः, विपक्ष का चुनाव आयोग बहिष्कार यह दर्शाता है कि बड़े दावे करने वालों के पास सच्चाई नहीं है और वे संवैधानिक संस्थाओं से भागते हैं। जनता को चाहिए कि इस तरह की राजनीति को पहचाने और सही जवाब दे।
स्रोत: भारत निर्वाचन आयोग