भारत में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का सच: 1976 के बाद की हकीकत

प्रस्तावना: भारत में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहस वर्षों से चल रही है। खासकर 1976 के बाद संविधान में बदलाव के बाद यह विषय और भी प्रासंगिक हो गया।
संविधान में समाजवाद: केवल शब्द या वास्तविक बदलाव?
1976 के आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए। यह सवाल आज भी प्रासंगिक है कि क्या भारत में 1976 के बाद वास्तव में समाजवाद आया या यह शब्द सिर्फ इसलिए लाया गया ताकि धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा जा सके और अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण की राजनीति को हवा मिल सके।
धर्मनिरपेक्षता का विरोधाभास: बहुसंख्यक दमन की नीति
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत में सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय को दबाया गया है। चुनिंदा अल्पसंख्यक परिवारों को, जो प्रभावशाली थे, उनको अपने राजनैतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया गया। लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय की वास्तविक बेहतरी, शिक्षा और सामरिक विकास पर ध्यान ही नहीं दिया गया।
समाजवाद का असली चेहरा: जातिगत राजनीति का उदय
समाजवाद के नाम पर भारत में जातिगत राजनैतिक दलों का उदय हुआ। आज तक एक ही परिवार विरासत में मिली शीर्ष नेतृत्व की कुर्सी संभाल रहा है। भारत में कई प्रदेश हैं, परंतु समाजवादी विचारधारा के नाम पर जाति विशेष और विशिष्ट परिवारों का ही बोलबाला है।
आरक्षण की विफलता: चुनिंदा परिवारों का एकाधिकार
भारत में आज भी आरक्षण का लाभ चुनिंदा परिवार उठा रहे हैं। गरीब की शिक्षा, मेडिकल जरूरतें, रोजगार पर बीते 55 साल में कुछ खास हुआ नहीं है। यह समाजवाद के नाम पर सबसे बड़ा धोखा है।
संविधान निर्माताओं का मूल विचार: अम्बेडकर का विरोध
संविधान के मुख्य शिल्पकार डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ने का विरोध किया था। मूल संविधान सभा में तीन बार इन शब्दों को जोड़ने का प्रस्ताव आया और तीनों बार खारिज हुआ। फिर आपातकाल के दौरान जब विपक्ष जेल में था, तब यह संशोधन किया गया।
विभाजन के बाद धर्मनिरपेक्षता: तर्कसंगत या राजनैतिक चाल?
जब भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ तो भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्ष क्यों जोड़ा गया? वो भी तब जब संसद में विपक्ष था ही नहीं, जेल में था। यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।
समाजवाद की वास्तविकता: शब्दों में समानता, व्यवहार में भेदभाव
समाजवाद का मतलब है समान अवसर, समान न्याय। लेकिन भारत में यह सिर्फ शब्द जोड़ा गया, बाकी कुछ भी नहीं हुआ। आज भी:
- जाति आधारित राजनीति फल-फूल रही है
- आरक्षण का लाभ उठाने वाले वही परिवार हैं
- गरीब शिक्षा, स्वास्थ्य से वंचित है
- नेतृत्व पारिवारिक व्यवसाय बन गया है
पिछले 10 वर्षों में बदलाव: अभी भी अपर्याप्त
पिछले 10 वर्षों से कुछ बदलाव देखने में आया है परंतु पर्याप्त नहीं लगता। आज भी समाजवाद के नाम पर वही पुराने चेहरे, वही पारिवारिक राजनीति, वही जातिगत समीकरण चल रहे हैं।
हाल की घटनाएं: सुप्रीम कोर्ट का फैसला
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2024) मामले में प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की याचिकाओं को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि 44 साल बाद इस संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध कारण नहीं है।
आगे की राह: वास्तविक समाजवाद की जरूरत
भारत को सिर्फ शब्दों के समाजवाद से मुक्ति चाहिए। जरूरत है:
- जातिगत राजनीति से मुक्ति
- आरक्षण के वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंच
- पारिवारिक राजनीति का अंत
- गरीब की शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान
समाजवाद – शब्द या भावना?
समाजवाद सिर्फ शब्द जोड़ा गया, बाकी कुछ भी नहीं हुआ। यह कड़वा सच है कि भारत में समाजवाद के नाम पर जो हुआ है, वह वास्तविक समाजवाद नहीं बल्कि चुनिंदा तुष्टिकरण और पारिवारिक राजनीति है। अब समय है इस छलावे से मुक्ति पाने का।
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