चीन का रुख: भारत के साथ कोई युद्ध नहीं
भारत के साथ युद्ध नहीं चाहता चीन — यह बयान केवल कूटनीतिक औपचारिकता नहीं बल्कि चीन की दीर्घकालिक रणनीतिक नीति का हिस्सा है। एशिया की दो बड़ी शक्तियां, भारत और चीन, जिनके बीच सीमाई विवाद और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा दशकों से चली आ रही है, अब एक ऐसे मोड़ पर हैं जहां युद्ध के बजाय आर्थिक सहयोग और स्थिरता पर ध्यान देना दोनों के हित में है। चीन का यह रुख उसके आर्थिक विकास, क्षेत्रीय प्रभाव और वैश्विक छवि को संरक्षित करने की दिशा में उठाया गया व्यावहारिक कदम है।
भारत के साथ युद्ध नहीं चाहता चीन: रणनीतिक और ऐतिहासिक विश्लेषण
1962 के युद्ध के बाद से भारत के साथ युद्ध नहीं चाहता चीन की भावना कई बार परखी गई है। डोकलाम (2017) और गलवान घाटी (2020) जैसी घटनाओं ने दोनों देशों के संबंधों में तनाव बढ़ाया, लेकिन संघर्ष को सीमित रखने के लिए कूटनीतिक वार्ताओं और सैन्य स्तर पर संवाद जारी रखा गया। वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर तनाव के बावजूद, दोनों देशों ने बड़े युद्ध से बचने के लिए तंत्र बनाए हैं। चीन की यह नीति दर्शाती है कि वह सीमा विवादों को नियंत्रित करने के लिए राजनीतिक और आर्थिक रास्ते तलाशना चाहता है।
आर्थिक दृष्टि से भी यह रुख समझदारी भरा है। चीन की प्राथमिकता अब सैन्य विस्तार नहीं बल्कि आर्थिक पुनरुत्थान, तकनीकी नवाचार और क्षेत्रीय स्थिरता है। भारत के साथ युद्ध उसके निवेश, व्यापार साझेदारी और वैश्विक छवि को नुकसान पहुंचा सकता है। विशेष रूप से बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव जैसी परियोजनाएं, जो दक्षिण एशिया में चीन के प्रभाव को बढ़ाने का माध्यम हैं, युद्ध की स्थिति में खतरे में पड़ सकती हैं।
आर्थिक प्राथमिकताएं और कूटनीतिक सोच
भारत के साथ युद्ध नहीं चाहता चीन की नीति का एक बड़ा कारण उसका वैश्विक आर्थिक एकीकरण है। चीन का व्यापार दुनिया के लगभग हर प्रमुख देश से जुड़ा है। किसी भी सैन्य संघर्ष की स्थिति में उसे न केवल आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है बल्कि विदेशी निवेश और सप्लाई चेन पर भी गंभीर असर पड़ेगा। इसके अतिरिक्त, युद्ध की स्थिति चीन के विकास लक्ष्यों को कमजोर कर सकती है, जो उसकी घरेलू राजनीति के लिए भी चुनौतीपूर्ण होगी।
कूटनीतिक स्तर पर भी चीन भारत के साथ वार्ता को प्राथमिकता दे रहा है। 2020 की गलवान झड़प के बाद दोनों देशों के बीच कई दौर की सैन्य और राजनयिक वार्ताएं हुईं। चीनी विदेश मंत्रालय ने कई बार कहा है कि सीमा विवाद का समाधान बातचीत और आपसी विश्वास से ही संभव है। यह संकेत देता है कि चीन का लक्ष्य युद्ध नहीं बल्कि संवाद और नियंत्रण है।
सैन्य यथार्थ और भविष्य की चुनौतियां
हालांकि चीन के पास सैन्य क्षमता में कुछ बढ़त है, फिर भी भारत के साथ युद्ध नहीं चाहता चीन की नीति यह मानती है कि दो परमाणु-सशस्त्र राष्ट्रों के बीच कोई भी बड़ा युद्ध विनाशकारी होगा। हिमालयी भूभाग की कठोर भौगोलिक परिस्थितियां और रसद संबंधी कठिनाइयां किसी भी सैन्य अभियान को जोखिमपूर्ण बना देती हैं। चीन के सैन्य रणनीतिकार भली-भांति जानते हैं कि सीमित संघर्ष भी नियंत्रण से बाहर जा सकता है।
इसके अलावा, चीन पहले से कई मोर्चों पर रणनीतिक दबाव झेल रहा है—दक्षिण चीन सागर, ताइवान और अमेरिका के साथ तनावपूर्ण संबंध उसकी प्राथमिकताओं में हैं। ऐसे में भारत के साथ एक नया सैन्य मोर्चा खोलना उसके संसाधनों को विभाजित कर देगा। इसलिए उसका ध्यान बहु-मोर्चीय संघर्ष से बचने और कूटनीतिक समाधान पर है।
भविष्य के दृष्टिकोण से, सीमाई घटनाओं या गलतफहमियों के कारण तनाव फिर भी उभर सकते हैं। दोनों देशों में बढ़ती राष्ट्रवादी भावना सरकारों को सख्त रुख अपनाने के लिए मजबूर कर सकती है। लेकिन स्थिरता बनाए रखना दोनों की सामरिक और आर्थिक आवश्यकता है।
राजनीतिक मतभेदों के बावजूद आर्थिक संबंध बनाए रखना इस नीति की व्यवहारिकता को साबित करता है। चीन भारत के साथ व्यापारिक रूप से जुड़ा है और अरबों डॉलर का आदान-प्रदान दोनों देशों के बीच हर वर्ष होता है। पूर्ण आर्थिक विघटन किसी भी पक्ष के लिए लाभदायक नहीं है। यही कारण है कि भारत के साथ युद्ध नहीं चाहता चीन केवल बयान नहीं बल्कि एक रणनीतिक वास्तविकता है।
निष्कर्षतः, चीन का भारत के प्रति यह रुख शांति, सहयोग और क्षेत्रीय संतुलन की दिशा में उठाया गया कदम है। आर्थिक विकास, परमाणु संतुलन, सैन्य यथार्थ और वैश्विक दबाव—all ये कारण बताते हैं कि युद्ध चीन के हित में नहीं है। इस नीति के तहत चीन अपनी शक्ति को संघर्ष में नहीं बल्कि स्थिरता और प्रगति में उपयोग करना चाहता है। भारत और चीन दोनों के लिए यही दृष्टिकोण आने वाले दशक में स्थायी शांति और सहयोग की नींव रख सकता है।

